प्रधानमंत्री के हाथों सम्मानित डॉ जयमती कश्यप संघर्ष से शिखर तक

प्रधानमंत्री के हाथों सम्मानित
डॉ जयमती कश्यप संघर्ष से शिखर तक
वनवासी कल्याण आश्रम के जीवन से लेकर पीएचडी प्राप्त करने तक की प्रेरक जानकारी
रायपुर खबर योद्धा विद्या भूषण दुबे।। मुश्किलें दिल के इरादे आजमाती है
निगाहों से स्वप्न का पर्दा हटाती है
हौसला मत हार वो मुसाफिर
ठोकरे इंसान को चलना सिखाती है।
यह वाक्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों अहिल्याबाई सम्मान से सम्मानित होने वाली डॉ जयमती कश्यप पर पूरी तरह से फिट बैठती है।
डॉ जयमती वर्तमान में महिला एवं बाल विकास विभाग परियोजना कोंडागांव 2 के गुनागांव सेक्टर में पर्यवेक्षक के पद पर कार्यरत हैं।
बस्तर की गोंडी और हल्बी बोली को लोक कला के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर पहचान देने वाली डॉ जयमती कश्यप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों देवी अहिल्याबाई सम्मान 2024 से सम्मान ग्रहण कर छत्तीसगढ़ का नाम रोशन की है। उन्हें मध्य प्रदेश शासन के द्वारा सम्मान स्वरूप 5 लाख रुपए और प्रशस्ति पत्र दिया गया ।
यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि जन्म से लेकर वर्ष 1998-99 तक डॉ जयमती का जीवन बेहद संघर्ष पूर्ण रहा है । जयमती जब महज 8 वर्ष की थी उन्हीं दिनों उनके माता गायत्री और पिता श्याम सिंग का देहांत हो गया। जिन हाथों में खिलौने होने चाहिए थे उस उम्र में जीविकोपार्जन के लिए संघर्ष की शुरुआत हुई।
खबर योद्धा के राजधानी रिपोर्टर विद्याभूषण दुबे से चर्चा में डॉ जयमति बताती हैं कि लगभग 1998 – 99 तक उनका जीवन बेहद संघर्ष पूर्ण रहा। वह बताती हैं कि माता पिता के निधन हो जाने के जब वो छोटे बच्चों को पढ़ाई करते देखती थी तब उनका भी मन पढ़ने को करता था । यहीं सोच के बदौलत शिक्षा साक्षरता मिशन के माध्यम से गीदम से प्राथमिक शिक्षा पास की। समय के प्रवाह के साथ वो वनवासी कल्याण आश्रम से भी जुड़ गई जहां उन्होंने जीने का लगाव सीखा और जीवन में संस्कार कैसा होना चाहिए यह भी उन्हें वही सीखने को मिला।
समय के प्रवाह में वह बहते हुए मध्य प्रदेश के धार जिला चली गई जहां से उन्होंने मिडिल स्कूल की शिक्षा ग्रहण की।
इसके बाद फिर वह अपने रिश्तेदारों के बीच बस्तर के नारायणपुर जंगलों में आ गई ,जहां वह दसवीं की प्राइवेट परीक्षा पास की। इसके बाद नारायणपुर से वह दंतेवाड़ा चले आई, सफर के साथ-साथ संघर्ष भी बराबर चल रहा था । लोगों के घरों में काम कर अपना जीविकोपार्जन करने वाली जयमति दंतेवाड़ा हायर सेकेंडरी स्कूल से 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की । कालांतर में एक बार फिर वह नारायणपुर चली गई जहां से उन्होंने ग्रेजुएट की शिक्षा ग्रहण की।
डॉ जयमती के जीवन में समय अपना करवट तेजी से बदल रहा था और धीरे-धीरे संघर्ष के बादल भी छट रहे थे। वर्ष 1999 के आसपास की बात है जयमती का चयन शिक्षा कर्मी वर्ग 3 के लिए हो गया । शासकीय नौकरी में आने के बाद भी पढ़ाई और लोक कला, संगीत के प्रति भी उनका लगाव कम नहीं हुआ।
शिक्षा के क्षेत्र में कठिन विषय माने जाने वाले इतिहास से उन्होंने पोस्ट ग्रेजुएशन किया। दूसरी तरफ लोक संगीत लोक गायिका के रूप में हल्बी और गोड़ी बोली पर काम करना सतत जारी रहा। वर्ष 2006 में पदोन्नत होकर सुकुरपाल मिडिल स्कूल पहुंच गई। लगभग 4 से 5 वर्षों तक वह शिक्षाकर्मी वर्ग 2 रही ।
वर्ष 2010 में व्यापम के द्वारा महिला एवं बाल विकास विभाग के पर्यवेक्षक पद के लिए विज्ञापन जारी हुआ। विभागीय साथियों और करीबी लोगों के कहने पर इस पद के लिए परीक्षा दी और चयनित भी हो गई। वर्ष 2011 से लेकर अब तक जयमती जिला कोंडागांव में सुपरवाइजर के पद पर पदस्थ है। सुपरवाइजर बन जाने के बाद भी शिक्षा के प्रति उनका लगाव कम नहीं हुआ और उन्होंने बस्तर के परगना विषय पर पीएचडी की तैयारी की । वर्ष 2019 में पंडित रविशंकर शुक्ल यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
देखते ही देखते शिक्षा के प्रति लगन परिश्रम के बदौलत जयमति अब डॉ जयमती हो चुकी थी और लोक कला संगीत के प्रति लगन परिश्रम उसे अहिल्याबाई सम्मान के मंच तक ले गई। डॉ जयमती कश्यप उन लोगों के लिए जीती जागती मिसाल है जो साधनों का रोना रोते हैं। कहना गलत नहीं होगा कि जो नक्सली कलम की जगह बंदूक थामें थे यदि वही नक्सली बंदूक की जगह कलम थामें होते तो आज उनका भी नाम समाज में डॉ जयमती की तरह हो सकता था।